दया ले सुरत, नाम झूले
भण्डारे का जलवा स्थान है: भगवान श्री कृष्ण की पावन जन्मभूमि “मथुरा नगरी का । मधुवन का, ऐतिहासिक स्थल, जहाँ विश्व का अनोखा मन्दिर ‘जयगुरुदेव नाम योग साधना मन्दिर (जयगुरुदेव मन्दिर) बना हुआ है। धवल संगमरमर से निर्मित यह खूबसूरत मन्दिर भारतवर्ष की अमूल्य धरोहर है। इस वरदानी और दुनिया के इकलौते मन्दिर का निर्माण युग मसीहा परम पूज्य परम सन्त बाबा जयगुरुदेव जी महाराज ने अपने पूज्यपाद गुरु स्वामी घूरेलाल जी महाराज की पुण्य स्मृति में करवाया है। मन्दिर की एक विशेषता है कि यह मन्दिर भारत वर्ष ही नहीं, सारी दुनिया में सफेद संगमरमर का विलक्षण मन्दिर अपने सर्व धर्म | सम्भाव के प्रतीक के रूप में प्रसिद्ध है। यह मन्दिर नाम का मन्दिर है। मीनारों से मस्जिद, गुम्बज से गुरुद्वारा और प्रार्थना हाल से चर्च मालूम पड़ता है। इस मन्दिर में | प्रवेश का कोई शुल्क नहीं, फोटो खींचने की मनाही नहीं। इस जयगुरुदेव नाम योग साधना मन्दिर में कोई भी जा सकता है, किसी प्रकार का भेदभाव या 1 रोक-टोक नहीं है। सारे विश्व में ईर्ष्या-द्वेष से विषाक्त होते वातावरण को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए यह मन्दिर अपने आप में एक प्रेरणा स्रोत है। सभी वर्गों, धर्मों, मजहबों को एक स्थान पर प्रेम, प्यार और – सद्भाव के साथ बैठकर सच्ची ईश्वरीय आराधना, खुदाई ॥ इबादत, पूजा-पाठ, ग्रन्थ-शास्त्र की वाणियों का चिन्तन, उन पर चलने का संकल्प लेने, यह शरीर रूपी चर्च में सच्ची प्रार्थना करने की एक सर्वधर्म सम्भाव की -स्थली है। जो वर्तमान की सबसे बड़ी जरूरत साधना है।
एक तरफ जहाँ मानवता की मर्यादायें टूट रही हैं, मनुष्य का खान-पान, आचरण, व्यवहार, क्रिया, चिन्तन आदि कुसंस्कारों से बिगड़ रहा है। मनुष्य को मनुष्य बनाने की पाठशालायें नहीं रही। विकृतियों की बरसात हो गई । शिक्षा के साथ अच्छे संस्कार की भी जरूरत है। भौतिक शिक्षा के साथ मानवीय मूल्यों की निरन्तर कमी होना, एक चिन्ता का विषय है। इस अधःपतन, नैतिक पतन का जिम्मेदार कौन है ?, इस पर गम्भीरता से सोचना पड़ेगा। अपनी भारतीय संस्कृति । के उदात्त आदर्शों की ओर फिर से लौटना पड़ेगा। – हमारी संस्कृति में वह आदर्श सिखाये जाते हैं कि सारा संसार अपना है। सभी जीव एक समान हैं, क्योंकि 1 सबके अन्दर उसी सर्वशक्तिमान प्रभु की अंश जीवात्मा चेतन सत्ता के रूप के विद्यमान है। “वसुधैव कुटुम्बकम् ।” का आदर्श वाक्य उच्चारण मात्र से हमारी गौरव, गरिमा की कीर्ति प्रतिध्वनित नहीं होगी। बल्कि इसे अपने व्यावहारिक आवरण में उतारकर सबको अपना मानना पड़ेगा। लोगों के खान-पान में और जो कमी आ गई, उसे संकल्प लेकर सुधरना सुधारना पड़ेगा। समाज में यह बात, प्रमुखता से बतानी, फैलानी पड़ेगी कि रावण चारों वेदों का ज्ञाता, प्रकाण्ड विद्वान, सर्वोच्च ऐश्वर्यशाली अतिदीर्घ परिवार वाला प्रबल पुजारी होते हुए केवल तीन कमियों के कारण हम उसे मानव नहीं, दानव बताते हैं। उसकी पहचान किस रूप में थी, वह भैंसे का माँस खाता था, शराब अर्थात् मदिरा का सेवन करता था। दूसरी बहन, बेटियों पर बुरी नजर रखता था। इसी कारण उसे आदमी नहीं राक्षस कहा जाता है।सबको यह सोचना, विचार करना पड़ेगा कि हर वर्ष विजय दशमी पर्व मनाने के दिन हम रावण का पुतला दहन क्यों करते हैं? निष्कर्ष में यही आयेगा कि । उसके खान-पान अशुद्ध थे, मद्यपायी था, परनारी पर कुदृष्टि रखने वाला उसका स्वभाव था। यदि वर्तमान में यही अवगुण हमारे अन्दर, हमारे परिवार के सदस्यों, परिजनों में या नातेदार, रिश्तेदारों में, पड़ोसियों, गाँव अथवा नगर वासियों में, हमारे सुसभ्य कहे जाने,
धर्म का बोलबाला खत्म हो गया, अधर्म का फैलाव ज्यादा हो गया।