मौत से डरत रहो दिन रात
यह मृत्युलोक जन्म-मरण का देश है । यहाँ I जिसका जन्म हुआ है, उसे एक न एक दिन मरना जरूर है। जो मृत्युलोक से चला गया है, उसे निश्चित ■ रूप से इस मृत्युलोक में लौटकर फिर किसी न किसी रूप में, पेड़-पौधों के रूप में चाहे सूक्ष्म जीवों के रूप में, कीट-पतंगों के रूप में, अन्य जीव-जन्तुओं, पक्षियों, पशुओं अथवा मनुष्य के रूप में पैदा जरूर होना है। यह सृष्टि का रहट चक्र है। जन्म-मरण का फेरा लगातार चलता रहता है। यह क्यों होता है? कर्मों का अटल कानून है। जीवात्माओं का असली घर सत्तलोक है। वहाँ से उतार कर शब्द की डोरी पकड़ाकर नीचे लाई गई हैं। काल प्रभु ने सत्तपुरुष का एकनिष्ठ ध्यान करके अखण्ड तपस्या की। उसी तपस्या के फलस्वरूप | सत्तपुरुष भगवान ने खुश होकर एक छोटा सा भण्डार काल भगवान, निरंजन देव को दे दिया। महात्माओं की वाणियों में आता है कि “काल किया हम सेवा भारी, सेवा वश हम कुछ न विचारी । ” काल प्रभु त्रिलोकी नाथ निरंजन भगवान ने अखण्ड तपस्या करके हमको (सत्तपुरुष को) खुश कर लिया। । उसकी सेवा के वशीभूत होकर हमने कुछ भी विचार I नहीं किया । ” उसने माँगा तुमको हमसे। सौंप दिया “हम सेवा वश में।” काल भगवान ने तुमको I (जीवात्माओं को) माँगा तो हमने उसकी त्याग, तपस्या, सेवा के वश में आकर उसे अपने अखण्ड महासागर I से एक छोटा सा भण्डार दे दिया। उस अगाध सागर से दिये गये भण्डार की गणना क्या है? जैसे किसी ॥ बर्तन में भरे पानी में नीम की सींक (नीम की पत्ती को धारण करने वाली डण्ठल) को डालकर उठा लिया जाय तो पानी से तर सींक से पानी सरक कर नीचे एक छोटी सी बूँद के रूप में टपक पड़ता है। ठीक उसी तरह से अपार जीवात्माओं के महासागर के जीवों का भण्डार है। श्री रामचरित मानस में लिखा भी गया है कि: “सींकर ते त्रैलोक्य सुपासी । “
जब जीवात्माओं को सत्तपुरुष भगवान ने काल भगवान को सौंपा तो यह सुरतें (जीवात्मायें) यहाँ आने को तैयार नहीं थीं। अपने प्रभु को छोड़कर दूर जाना नहीं चाहती थीं। विकल होकर रोने-तड़पने लगीं। तब सत्तपुरुष ने इनको समझाया कि मैं तुम्हारे । साथ सन्तों का बोध भेज दे रहा हूँ। वह तुम्हारे साथ गुप्त रूप रहेगें। वहाँ की सब खबरें मेरे पास पहुँचाते । रहेंगे। जब तुम्हारा मन मेरे पास आने का हो तो इन्हीं सन्तों के माध्यम से वापस आ जाओगी। बहुत । समझाने-बुझाने, ढाँढस देने के बाद जीवात्मायें आने को तैयार हुईं। उन्हें सत्तपुरुष के नाम (शब्द) की। डोरी को पकड़ाकर नीचे उतारा गया। एक-एक मंडल में ना जाने कितने युगों तक रोक कर बर्दाश्त । कराया गया, फिर मण्डल -दर-मण्डल नीचे उतारकर लाया गया और यहाँ लाकर मनुष्य शरीर में दोनों। आँखों के मध्यभाग में बैठा दिया गया। पहले केवल – मनुष्य ही मनुष्य थे और दूसरा कोई शरीर या योनि नहीं थीं। उस समय सतयुग का समय था। ” सतयुग सब योगी विज्ञानी, करि हरि ध्यान तरहिं भव। प्रानी।” सतयुग के समय में सब योगी विज्ञानी हुआ करते थे। रास्ता खुला था। आवागमन का कोई बन्धन नहीं था। समय पूरा हुआ तो ध्यान विधि से। उस सत्तपुरुष के पास वापस चले जाते थे।
यह क्रम लगातार चलता रहा। ना जानें कितनी ॥ सुरतें अपने मालिक के लोक में अखण्ड सुरतों के भण्डार में पहुँच गईं। काल भगवान निरंजन देव ने ।
पचो मत आय इस जग में, जानियो रैन का सुपना।।