गुरु की दया का प्रत्यक्ष फल यह है कि तुम में अपने जीवन की कदर हो और अन्तर में नेत्र खुलें। शब्द सुनाई देने लगे। लगन के अनुसार ही शब्द सुनाई देगा। कम लगन में कम, ज्यादा में ज्यादा शब्द सुनाई देता है।
गुरु की दया सदा लेते रहना चाहिए और अपने कर्मों पर निगाह मारनी चाहिए कि हमारे कैसे कर्म हैं? मालिक कर्मानुसार दया करता है, परन्तु – सुरत-शब्द के साथ जोड़ने में स्वतन्त्र हैं। जब चाहें । जब चाहें | शब्द के साथ जोड़ें और जब चाहें कर्म भार की गठरी उतार दें। यह जीवों को पूरा अधिकार है। | परन्तु सब कार्य गुरु कृपा द्वारा ही करना चाहिए। माया के दाँव से तभी बचा जा सकता है, जब गुरु को हर जगह हाजिर-नाजिर समझा जाय। हमारे कर्मों पर उनकी नजर है। भय करता रहे कि कोई गलत काम न बन जाय । भजन, सेवा करके गुरु की आज्ञा का पालन हो, गुरु से प्रेम प्रगाढ़ हो जाय। गुरु- कृपा से ही बचाव संभव है।
स्वभाव नहीं जाता है। चाहे कुत्ता दूसरों के दरवाजों पर ठोकर खावे, परन्तु जायेगा जरूर। निरादर करके और डण्डा मार करके भगाया जायेगा, मन रूपी कुत्ते की आदत का जाना आसान नहीं है।
मन ने अपना बल इन्द्रियों को बेच दिया है। जब इन्द्रियाँ चाहती हैं, तभी मन को अपने दरवाजों । पर बुला लेती हैं। इन्द्रियाँ अपने स्वभावों से लाचार हो चुकी हैं। वह सदा संसारी जड़ पदार्थों को देखना । पसन्द करती हैं। हर चीज जहाँ भी देखने, सुनने, खाने, सूँघने और स्पर्श के लिए मिले। अब सुरत अपने प्रकाश और बल को इन्द्री मन भोग में दे चुकी है। ऐसा कोई चारा नहीं दिखाई ॥ देता है, जिससे सुरत अपने क्षीण बल को वापस जमा कर सके। सबमें कमी आने से सुरत बुद्धिहीन हो गई ।
मनुष्य ने अपना आत्म बल खो दिया । जो-जो बुद्धि उसे संसारी ज्ञान के वास्ते दी गई थी, वह भी क्षीण हो गई। ऐसा कोई अंग बाकी ना रहा,
प्रश्नः स्वामी जी! सुरत मन के अधीन कैसे हो जिससे कुछ आनन्द प्राप्त हो । अब जो कुछ आनन्द -गई ?
उत्तरः सुरत आँखों के पीछे भाग पर बैठकर पूरी ताकत मन को दे रही है। अन्तर में सुरत ने शब्द की ॥ ताकत को तोड़ दिया और स्वाधीन होना चाहती है।
मन ने कुछ स्वाधीन होने की मदद की। परन्तु सुरत अपने मित्र के कहने में आकर फँस गई और काम करने के वास्ते सुरत ने अपना सब बल मन को दे । दिया है। फिर वह पूरी ताकत से सब ओर स्थाई रस ि लेना चाहता है।
जब मन सुरत की ताकत से सब पूरे रसों का स्वाद स्थाई लेना चाहता है, तब मन इन्द्रियों के दरवाजे पर दौड़-दौड़कर दरवाजों का पूरा आदी हो गया। अब मन की हालत इस तरह हो गई कि जब तिक इन्द्रिय द्वार पर हाजिरी न दे ले और एक कण 1 क्षणिक रस न ले ले, तब तक इस मन रूपी कुत्ते का मिलता है, वह प्रथम इन्द्रियों को, फिर उसकी हवा मन को और तब हवा की ठंडक सुरत को पहुँचती है। सुरत अपने आनन्द से बेखबर है। उसे अब बहुत – काल से अपना ज्ञान न रहा। काल से अपना ज्ञान न रहा। -स्व संकलित ।
परिवर्तन अवश्य होगा परिवर्तन होगा, इसे कोई नहीं रोक सकता । चाहे आकाश टूटे या धरती फट जाय, लेकिन परिवर्तन अवश्य होगा।
सूरज पूरब से निकलना बन्द कर दे और पश्चिम में निकलने लगे, यह तो हो सकता है, लेकिन बाबा जी के मुँह से निकली हुई कोई भी बात इधर-उधर होने वाली नहीं । – बाबा जयगुरुदेव
देवी-देवता मानव-तन पाने के लिए तरसते रहते हैं।