श्री देवदत्त जी! आपने पूछा है कि जो लोग सेवाओं को लेकर अपने निजी काम में खर्च कर लेते हैं, । उसका क्या परिणाम होगा ? इस सम्बन्ध में यह कहना है कि सत्संगी प्रेमी भाई-बहन न जाने किस तरह से अपनी गृहस्थी में, गरीबी में, तकलीफें उठाकर, तब मेहनत मशक्कत की कमाई से सेवायें निकालकर देते हैं। उन सेवाओं में उनकी पीड़ा विभिन्न प्रकार की तकलीफें दूर करने की प्रार्थनायें जुड़ी होती हैं। वह सेवा जब गुरु दरबार में पहुँचेगी, तभी दया का संचार होगा और प्रेमी की प्रार्थना स्वीकार ॥ होगी। यदि किसी सेवादार द्वारा संकलन की गई सेवा में यह भूल हो जाती है कि वह सेवा अपनी निजी जरूरतों में खर्च हो गई, छल कपट से उसे निजी कार्य में लगा दिया गया तो उसका परिणाम बहुत बुरा होता है। गुरु महाराज बराबर कहा करते थे कि-“मेहनत | मशक्कत यानी खून पसीने की कमाई में होते -हैं-नौ-नौ अंगुल दाँत, भजन करै सेवा करे, तो ऊबरे, नहीं फाड़े आँत । ” कहा गया है कि मेहनत मशक्कत की खून-पसीने से कमाई पूँजी में नौ-नौ अंगुल बड़े दाँत होते हैं। ऐसी कमाई की पूँजी भजन, | सेवा करने से बचत होती है, नहीं तो आँतों को फाड़ कर रख देती है। किसी भी सत्संगी को ऐसा गलत काम कभी नहीं करना चाहिए। चाहे कितनी भी । तकलीफ झेल लें, परन्तु सेवा का धन और सामान – अपने निजी कार्य में नहीं खर्च करना चाहिए। निरन्तर ॥इसका ध्यान रहे और हमेशा अपनी भूल चूकों की माफी अपने प्यारे सतगुरु से माँगते रहना चाहिए । श्री राधेश्याम जी! आपने पाँच नाम के नामदान एवं वर्तमान में संस्था प्रमुख पूज्य पंकज जी महाराज द्वारा नामदान की सरल विधि के बारे में सवाल किया है, इस सम्बन्ध में यह कहना है कि युग
महापुरुष परम पूज्य बाबा जयगुरुदेव जी महाराज अपने जीवनकाल में पाँच नाम का नामदान देते थे। सबको सुमिरन, ध्यान, भजन के लिए प्रेरित करते थे। अपने सत्संगों में प्राय: यह फरमाया करते थे कि कलयुग में सन्तों ने उस मालिक से मिलने का रास्ता बहुत आसान कर दिया। सुगम कर दिया।। उनकी शरण में आकर सेवा, भक्ति करके उनकी दया लेकर ना जाने कितनी सुरतें अपने घर वापस । चली गईं, उनका कल्याण हो गया। जो सुरतें – अपने असली घर सत्तलोक पहुँच गईं, वह अब कभी लौटकर यहाँ जन्म-मरण के देश में नहीं । आयेंगी।” सन्तों के आने का सिलसिला कबीर साहब से शुरू हुआ इस परम्परा में नानक जी, गोस्वामी तुलसीदास, रविदास, मीराबाई, चरनदास, सहजोबाई, दयाबाई, दादू साहब, दरिया साहब, भीखा साहब, बुल्ले शाह, जगजीवन, राधास्वामी, गरीब ॥ साहब, स्वामी विष्णुदयाल शर्मा, स्वामी घूरेलाल जी महाराज और उसके बाद परम पूज्य परम सन्त बाबा जयगुरुदेव जी महारजा और बीच में अनेक सन्त सतगुरु एक के बाद एक आते रहे। जीवों को जगाने का काम करते रहे।
पहले यह सुरत-शब्द योग (नामयोग) मार्ग बिल्कुल गुप्त था। नामदान पाने के लिए कठिन सेवा – कसौटियों से गुजरना पड़ता था । शुरु-शुरु में । नामदान के लिए कठिन परीक्षा देनी पड़ती थी। पूरी अध्यात्मवाद की पढ़ाई के लिए चार जन्म की। अवधि लग जाती थी। “पहिल जनम गुरु भक्ति कर, जन्म-दूसरे नाम, तीसर जन्म में मुक्ति पद, चौथे में निज धाम” कहने का मतलब यह है कि पहला जन्म गुरु सेवा में बीत जाता था, दूसरे जन्म में भी सेवा करते-करते परमार्थी राहगीर भक्ति मार्ग मो पर एक बूँद नहिं परेऊ, मद भ्रम मोह छत्र सिर धरेऊ ।।