बता दे, हमें अन्तर में ले चले। वह दोनों काम करे। “लिये खेप है। यह मनुष्य तन जा रहा है। अबकी । आपको भी ले चले और स्वयं भी चले। दोनों की मिल गया, फिर नहीं मिलेगा। इसमें सुरत बैठकर रजामन्दी होगी, तब काम बनेगा । डूब रही है। इसीलिये साधक कहता है कि इस खेप को पार कर दो। यह खेप झूठी चीजों के लिए नहीं मिली है। आप उसका चिन्तन क्यों नहीं करते हो ? जिससे जीवात्मा जाग जाय। आपका शरीर जा रहा है, आप जानते भी नहीं हो और कुछ कर भी नहीं रहे हो ।
सत्संग इसीलिए तो सुनाते हैं कि आप इधर से मुड़ो और उधर चलो। इससे निवृत्त हो जाओ। बिना महापुरुषों के जीव-कल्याण नहीं होगा । कर्म करोगे, फल भोगो, उसी के अनुसार प्रारब्ध बनता है । सुख के कर्म करोगे तो मनुष्य शरीर मिलेगा। दुःख के कर्म करोगे तो मनुष्य शरीर नहीं मिलेगा। तुम अपने को यहाँ का ठेकेदार मत बनो। यहाँ किसी की भी ठेकेदारी नहीं चलती। समय पूरा हो जायेगा ।तो जाना पड़ेगा। जिस बच्चे को अबोध अवस्था में छोड़कर माता-पिता चले जाते हैं, वह भी पल जाता ॥ है, बड़ा हो जाता है।
जब मैं स्वामी जी के पास गया और उन्होंने मुझे रास्ता दिया तो ये कहा कि भजन पर बैठना तो ये इच्छा लेकर मत बैठना कि कोई आकर रोटी दे दे। मैं गाँव में जाकर रोटी माँगकर लाता था, उसे खा लेता था। एक रोटी पानी में भिगोया, खा लिया और भजन में बैठ गया। सात दिन के बाद फिर जाता था । कहने का मतलब ये कि साधू वेश बना लिया। दाढ़ी – बाल बढ़ा लिया और सुख के लिए घूमते रहे। गृहस्थों के दरवाजे पर खाने चले गये। कच्ची-पक्की की बात करने लगे कि हम कच्ची नहीं खाते हैं और खायेंगे तो पक्की खायेंगे यानि पूड़ी, हलुवा खायेंगे। वो भी खान-पान में फँस गये। मथुरा में एक मकान था, उसमें एक सन्यासी जी अपना प्रवचन कर रहे थे। मैं भी वहाँ बैठा था। वहाँ एक साँप लटक रहा था। मैंने तो देख लिया, उन्होंने नहीं देखा। मैंने कहा कि महाराज ! यह क्या लटक रहा है? उन्होंने देखा तो भागने लगे। मैंने कहा कि आप तो कहते हो कि सब में ब्रह्म है। इसमें भी तो ब्रह्म है। ब्रह्म को देखकर भागता क्यों है?
आपको मनुष्य तन मिला है, वही आपकेमहापुरुष कहते हैं कि अबकी बार इस खेप को पार लगा दो। दरवाजे पर बैठकर दृष्टि को लगाते नहीं हो तो कैसे दिखाई देगा? मन को एकाग्र नहीं करते हो तो धुन कैसे सुनाई देगी ? भव जाल में । फँसे रहते हो, उधर की ओर रुख नहीं करते हो । गुरु को आप अपने हृदय में बसा लो तो सुरत प्रार्थना । करती है। ये छोटी-मोटी प्रार्थना नहीं कर रही है। तो । हुआ तुमने प्रार्थना नहीं की, तड़प नहीं कैसे तुम्हारा काम होगा ? एक कहावत बना लिया और चली आ रही है कि जब कोई गया तो कह दिया कि स्वर्गवास हो गया। आपने देखा? क्या उसने कोई चिट्ठी भेजी ? सब झूठी बात है। स्वर्ग में वह जाता है, जो साधना करता है। जो साधना नहीं ! करता, वह जा नहीं सकता। कहा है कि जैसा खावै अन्न, वैसा होवै मन । जैसी बुद्धि वैसा चित्त । मुझे आप अच्छी तरह देख लो। जब तुम । नामदान लेकर साधना करोगे और इस शरीर से – अलग होकर स्वर्ग में, बैकुण्ठ में या ऊपर के लोकों की सैर करोगे तो यही चेहरा उधर भी मिलेगा। फिर तुम्हें धोखा किस बात का ? फरेब किस बात का ? करोगे तो पाओगे, नहीं करोगे तो नहीं पाओगे।
हमारे दिमाग में बहुत से नियम हैं। अगर सब बता दूँ तो सब लोग नकल करने लग जायेंगे कुछ तो अभी से नकल करने की तैयारी में हैं। -विशेष प्रतिनिधि (संकलित) साधन कठिन पुरातन सारे। नाम बिना नहिं कोउ मन मारे।।